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नया संसद भवन देश का दर्पण होगा पर क्या इस दर्पण के लोकार्पण में कोई सस्ता राजनैतिक स्टन्ट था?

Writer: Prakhar JainPrakhar Jain

भारत देश को अपनी आजादी के 75 साल बाद नया, भव्य और स्वनिर्मित संसद भवन मिल गया है। भारतीय लोकतंत्र की सबसे भव्य और दिव्य पंचायत में उत्तर से दक्षिण और पूरब से लेकर पश्चिम तक की भारत की वृहद और विशाल सांस्कृतिक विरसात को प्रतिबिंबित किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ये एक बड़ा काम अपने हाथ में लिया था, जिसे बखूबी निभाया भी। आजादी के मृत काल के मौके पर प्रधानमंत्री मोदी ने लाल किले की प्राचीर से कहा था की अब भारत का समय आ गया है, और इसी का प्रमाण इस नए संसद भवन से देने का प्रयास भी हुआ है।


प्रधानमंत्री की पवित्र सेंगोल से भारत में लोकतान्त्रिक मूल्यों को बल देने देने की बात दिल को छू गई, पर जब ददर्शक दीर्घा में नजर पढ़ी तो लोकतान्त्रिक मूल्यों के प्रति मन अंधकार के घोर कुएं में डूब गया। आखिर ये कैसा लोकतंत्र है जहां कोई विपक्ष ही दिखाई नहीं दे रहा। लोकतंत्र का सबसे बड़ा प्रतीक संसद भवन ही होता है और उसी संसद के उद्घाटन में विपक्ष नदारद है, ये बहुत ही गलत हुआ है। ये लोकतंत्र की मूल भवन के विपरीत और उस भवना और परिकल्पना पर तीखे प्रहार जैसा है। विपक्ष यदि किसी बात से नाराज था तो प्रधानमंत्री को डायलॉग से उस नाराजगी को दूर करना चाहिए था। आखिर ऐसे अवसार बार-बार नहीं आते हैं। लेकिन देश के मुखिया का इस पूरी घटना को नजरंदाज करना कहीं न कहीं इस बड़े दिन को केवल एक स्टन्ट बनाकर छोड़ देने के समान प्रतीत होता है।

 
 
 

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